अंदर-अंदर खोखला हो रहा है पहाड़। उसकी खूबसूरती तो सबको दिखाई देती है लेकिन दर्द नहीं। जिसके जवां परिंदे दाना पानी की तलाश में दूर दिशा में उड़ गए। बिन लाठी के लड़खड़ाता बुढ़ापा रह गया। खाली गांवों में लाचारी भरी है। हारी-बीमारी में हांफते, जाड़े में थर- थर कांपते, बेबस, निढाल अपने नीड़ में बिखरे तिनकों से पड़े हैं। न नाती-पोतों का शोर है और न कहानी-किस्से।
उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपनी जड़ों से उखड़ने की न तो उनमें कुव्वत है और न ही चाहत। ये बुजुर्ग अपने खेत-खलिहानों को बंजर होने से नहीं बचा पाए लेकिन घरों में पसरे सन्नाटे से लड़ रहे हैं। इनके पैरों में मजबूरी की बेड़ी है तो गांव-घर का अटूट बंधन भी। यहां का हवा-पानी इन्हें बहुत प्यारा है, इसलिए तमाम दुश्वारियों के बावजूद यहां बसे हैं।
पुराने दौर का हाथ थामे पुराने लोग अपने गांव में दिन काट रहे हैं। चिंता बस आज की है। आज का दिन निकल जाए, कल का कल देखेंगे। यहां आज भी रामायण और महाभारत का युग जीवित है। बोडा-बोडी (बुजुर्ग) रात को यही देखते हैं। यह कहानी कोटी गांव की है।
उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपनी जड़ों से उखड़ने की न तो उनमें कुव्वत है और न ही चाहत। ये बुजुर्ग अपने खेत-खलिहानों को बंजर होने से नहीं बचा पाए लेकिन घरों में पसरे सन्नाटे से लड़ रहे हैं। इनके पैरों में मजबूरी की बेड़ी है तो गांव-घर का अटूट बंधन भी। यहां का हवा-पानी इन्हें बहुत प्यारा है, इसलिए तमाम दुश्वारियों के बावजूद यहां बसे हैं।
पुराने दौर का हाथ थामे पुराने लोग अपने गांव में दिन काट रहे हैं। चिंता बस आज की है। आज का दिन निकल जाए, कल का कल देखेंगे। यहां आज भी रामायण और महाभारत का युग जीवित है। बोडा-बोडी (बुजुर्ग) रात को यही देखते हैं। यह कहानी कोटी गांव की है।
लाइट सही करने के लिए बिजली वाला दारू मांगता है
रुद्रप्रयाग से करीब 20 किमी दूर स्थित इस ब्राह्मण बाहुल्य गांव में आधे से ज्यादा परिवार पलायन कर गए। 60 परिवारों में से करीब 20 ही रह गए। उनमें भी बुजुर्ग बचे हैं, जो सड़क से नीचे की तरफ पगडंडियों से उतर कर गांव में पहुंचते हैं। एक घर में तीन-चार बुजुर्ग महिलाएं बैठी हैं। दोपहर में सब एक साथ बैठ जाती हैं। 65 साल की गोदांबरी देवी के दो बेटे मुंबई में नौकरी करते हैं।
बहू आती-जाती रहती है। कहती हैं, अपनी इच्छा से रह रहे हैं। और कहीं अच्छा नहीं लगता। रात में टीवी पर रामायण, महाभारत देखते हैं। 75 वर्षीय सावित्री मां के पति बीमार हैं। एक बेटा फौज में है और दूसरा हिमाचल में नौकरी करता है। 15 साल से बाहर हैं। कहती हैं, दिक्कत सब चीज की है। खेती छूट गई। राशन भी किसी से मंगाना पड़ता है। उनकी पेंशन आती है, उसी से गुजारा करते हैं।
उन्हें विस्मृति हो गई है। 90 साल के हैं, कहां ले जाऊं। घर में ही मरेंगे।73 वर्षीय दाताराम के पुराने घर में चारों ओर लाचारी पसरी है। डेढ़ साल पहले घर के पास दीवार से टकराकर गिर गए। रीढ़ की हड्डी में चोट आई। उनके घर में एक महीने से लाइट नहीं है। बताते हैं, बिजली वाला दारू मांगता है। एक हजार रुपये पेंशन मिलती है जिससे घर चलाते हैं। पत्नी शांता देवी दिव्यांग हैं।
एक लड़की थी जिसकी शादी हो गई। गांव से बाहर जा नहीं सकते। मजबूरी से रह रहे हैं। न गाड़ी का साधन है और न हॉस्पिटल की सुविधा। पहले गांव में रौनक थी। 10 साल पहले खाली होता चला गया। सड़क बाद में आई। बीमारी में भी ऐसे ही पड़े रहते हैं।
एक लड़की थी जिसकी शादी हो गई। गांव से बाहर जा नहीं सकते। मजबूरी से रह रहे हैं। न गाड़ी का साधन है और न हॉस्पिटल की सुविधा। पहले गांव में रौनक थी। 10 साल पहले खाली होता चला गया। सड़क बाद में आई। बीमारी में भी ऐसे ही पड़े रहते हैं।
सारी जिंदगी बाहर बिताकर गांव में आए
कभी-कभी एक टाइम ही खाना बनाते हैं। भूखे प्यासे रहें पर अपने घर में रहें। गणेशी देवी कहती हैं, अब यहां खराब लगता है। बच्चे सब चले गए। गांव सूना हो गया। पहले उत्तरायणी पर सभी मिलकर कोटेश्वर मंदिर जाते थे। मेरे पति दिव्यांग है। जाऊं भी तो कहां। 68 वर्षीय जयदत्त के दोनों बेटे पुलिस में हैं। कुछ दिन में वह भी बेटों के साथ जाकर रहेंगे। कहते हैं, गांव छोड़ना मजबूरी है।
नल में दो-तीन दिन तक पानी नहीं आता। यहां वो लोग रह रहे हैं, जो बच्चों के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे। मेरे घर में पिछले चार दिन से दूध नहीं है। मार्केट तक जाने का रास्ता खराब है। बेटी की शादी के बाद हम पति-पत्नी भी गांव छोड़ देंगे।
कोटी के मार्मिक चित्रण में एक चरित्र ऐसा भी है जो सारी जिंदगी बाहर बिताकर अंत में अपनी माटी में लौट आया। एसके पुरोहित उनका नाम है। 55 साल दिल्ली में प्राइवेट जॉब की। वृद्धावस्था में अपने गांव का हवा-पानी याद आया और यहां आ गए। नया घर भी बना लिया है। गांव उन्हें बहुत अच्छा लगता है। यहां जिंदगी थोड़ी दूभर है लेकिन वातावरण स्वच्छ है। कहते हैं, यहां आकर मैं फिट हो गया हूं।